देखो! आज का इन्सान अपने आप को कितना चतुर समझता है और चाहता है कि मुझे खुशियाँ तथा सम्मान तो उन गुरू शिष्यों जितना प्राप्त हो,परन्तु मुझे किसी प्रकार का कष्ट सहन न करना पडे। यद्दपि सच्चा मुर्शिद कदापि अपने शिष्य को कोई कष्ट एवम् दुःख नही देता, अपितु उसके बुरे कर्मों के फल को अपने ऊपर ले लेता है परन्तु शिष्य की अपनी लापरवाही अथवा कर्मों से उत्पन्न हुए किसी शारीरिक एवम् मानसिक कष्टों के लिए मु्शिद को जिम्मेदार ठहराना और उनको उलाहने देना कहाँ की गुरू सिक््खी है? इस प्रकार की निम्न सोच शिष्य के लिए अत्यंत शर्म की बात है। लज्जा की समाप्ति कह दें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसके अतिरिक्त यह भी कह दिया जाता है कि परमात्मा सब जगह पर है, सब का आदर करो। सम्मान करने के लिए यदि किसीअन्य को सजदा कर भी दिया जाए तो क्या हर्ज है? हर्ज है, क्योंकि सच्चे मुर्शिद के शिष्य के लिए यह अनिवार्य है कि वह किसी को बुरा न कहे, निन्दा न करे अपितु सबका आदर करे, परन्तु अपने मुशिद के बिना किसी और के लिए श्रद्धा का किंचित मात्र भाव लेकर उसे सजदा कर देना गुरू-शिष्यता नहीं। अपितु सतगुरु के प्रति बेमुख होने के लिए बढ़ाए सैंकडों कदम हैं क्योंकि मन तो चाहता ही यही है कि किसी भी प्रकार शिष्य का मुर्शिद से प्रेम टूट जाए। जिसके के लिए ‘मुर्शिद’ जैसा कोई और भी हो सकता है, ऐसा सोच लेना,’मन’ द्वारा प्रयोग किया गया सबसे बड़ा अस्त्र है। एक बार फिर इतिहास की ओर दृष्टि डालें कि केवल सतगुरु के बिना किसी अन्य के आगे सिर झुकाने की बात पर क्या कु छ हुआ है। जैसे श्री गुरू गोब॒शिंद स्॒शिंह जी के दोनों छोटे साहिबजादों को जब मौके के शासक के आदेशानुसार उसकी कचहरी में पेश करने के लिए ले जाया गया। जहाँ उस शासक का दरबार लगा हुआ था उस विशाल हाल का द्वार बंद था। केवल द्वार में एक छोटी और तंग खिड़की अन्दर जाने के लिए खुली थी। जिसमें प्रवेश क रने के लिए इन्सान को थोड़ा सा झुकना पड़ता था। जब साहिबजादे अन्दर प्रवेश करने के लिए तैयार हुए, उन्होंने पहले सिरों की बजाए अपनी टांगे अन्दर की और सिर बाद में सीधे ही अन्दर किये। भाव सिर को उस निर्दयी शासक द्वारा प्रयोग किये गए अनेक ढंगों द्वारा झुकने नहीं दिया। यह कोई कट्टरपन नहीं था किन्तु मु्शिद-सतगुरु के सम्मान को कायम रखने के लिए उठाया गया साधारण और आवश्यक पर इतिहास के लिए एक शिक्षा दायक कदम था।
वास्तव में यदि हम गहराई से सोचें तो मन के अतिरिक्त बुद्धि एवम् चतुराई के पीछे लग कर इन्सान मुर्शिद में अवगुण ढूँढने लगता है। बिना कुछ भी होते हुए मुर्शिद का वैकल्पिक ही नहीं बल्कि मुर्शिद से भी कोई बड़ा हो सकता है, के बारे में आई सोच को वास्तविक रूप देने लग जाता है। मु्शिद-प्रेम के मार्ग पर चलने के लिए एक शिष्य को अपने अन्दर से बुद्धि को निकाल लेना ही अनिवार्य तथा प्रारम्भिक कदम है।
इस सम्बंध में पूजनीय हजूर पिता जी सत्संग में फरमाते हैं :- बाह्य अक्ल इल्म का जो ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, क्यों, किन्तु, परन्तु करते रहते हैं, वो अल्लाह, राम, वाहिगुरू वाले मार्ग पे उतनी कामयाबी हासिल नहीं कर पाते, जो भोले-भाले एक पल में कर लेते हैं। भोले-भालों को मालिक लुटाता खजाने, खजाने लुटाता है और वो इश्क में डूबे हुए मालिक की याद में अन्दर ही अन्दर खुशी मनाते हैं और किसी से सुन भी लें कि मेरे मुर्शिद के यह वचन हैं, उसे मान लेते हैं और मुर्शिद सीधा कहे तो कैसे नहीं मानेंगे। चाहे कोई उनकी चमड़ी उतार दे। चाहे कोई उनका बन्द, बन्द काट दे उनकी जुबां पे सिवाए सतगुरु के कोई और नाम पैदा करने वाला अब तक तो जन्मा नहीं, और न कोई आगे जन्मेगा। उनकी जुबां पर तो अपने मालिक का नाम होता है। अरे, चाहे सिर पर तेज आरा ही क्यों न चल रहा हो, फिर भी वो कहते हैं आरे वाले, आरा जरा धीरे चला, जब तक यह जिस्म है, मुझे मेरी आँखों से मेरे मुर्शिद, मेरे मालिक के दर्शन-दीदार हो रहे हैं। जब आँखों से पार चला गया तो जैसे मर्जी चलाते रहना। यह कोई आसान बात नहीं, सिर पर वो तेज आरा चल रहा हो। कांटा लग जाए अथवा ज्यादा चोट लग जाए तो सब कुछ कपडों में ही आ जाता है। सिर पर आरा चलना, कोई मामूली बात नहीं और चल रहा हो,डाक्टरों के हिसाब से तो वह दिमाग है और दिमाग ही जब चीरा जाए तो क्या तो वह बोलेगा और क्या वो कहेगा। फिर भी जो मालिक के आशिक हैं, वो बोलते हैं, वो कहते हैं सिर कट जाए, उसको हाथ पर रखकर चल पड़ते हैं, वो किसी की परवाह नहीं करते। जब ऐसा दृश्य सामने आता है तो ये अक्ल जो होती है ना, यह तो फिर पानी भरती है, सूली पे चढ़ जाती है, यह हुआ तो हुआ कैसे? अक्ल वाले दंग रह जाते हैं, फिर उनकी अक्ल जवाब दे जाती है। बाद में मन चाहे कितने बहाने बनाता फिरे। तो भाई अक्ल इल्म से मालिक क शत लूटा नहीं जा सकता।
उह ऐडा भोला खसम नही
जेहड़ा मकर चलित्र न जाणे।
उहदे घर विच ओही वस सकदी,
जेहड़ी सब चतुराईयाँ भुल जावे।
मुर्शिद का वैकल्पिक ढूँढ कर सजदा कर देना या बे-दर हो जाना, बे-मुख कहलाता है। बे-मुख के पहनने के लिए भाई गुरदास जी ने क्या सुन्दर मैडल (तमगा) प्रस्तुत किया है :-
बामण गांई वंश घात अपराध करारे।
मद पी जूए ख:डदे जोहन पर नारे।
मोहण पराई लखमी ठग चोर चगारे।
विश्वास द्रोही अकृतघण पापी हत्यारे
लक्ख करोड़ी जोड़ीअन अनगणित अपारे।
इकत लुई न पुजनी बे-मुख गुरुदुआरे।
भाव, कोई ब्राह्मण कु ल का होकर गऊओं की हत्या करता हो,शराब पीता हो,जुआ खेलता हो,पराई औरत का संग करता हो। चोरी, ठग्गी के द्वारा धन एकत्रित करता हो। विश्वासघाती एवम् अकृतघन हो और अनेकों पापों से संलिप्त हो। ऐसे लाखों आदमी एकत्रित हो जाएं तो इनके अपराधों का पाप गुरू के दर से बे-मुख हुए शिष्य के रोम के पाप के बराबर नहीं हो सकता।
अत: एक शिष्य को यह बात अपनी नस-नस में बिठा लेनी चाहिए। अपनी नाडियों में प्रवाहित होते रक्त में घोल लेनी चाहिए, दिल में अंकित करके, मस्तिष्क में पक्की तरह बिठा लेनी चाहिए कि मेरे ‘मुर्शि जैसा न कोई आज तक हुआ है न ही कोई होगा। मालिक,परमात्मा का नाम, मुर्शिद का पवित्र एवम् इलाही आदेश मान कर जपना चाहिए। मेरे मुर्शिद का मुझे यह आदेश है कि मालिक का नाम जपो। कहते हैं यदि तुम किसी से निःस्वार्थ प्रेम करते हो, तो उसका सम्मान करो उसकी प्रशंसा करो, उसका नाम रटो जिसको तुम्हारा प्यारा प्यार करता है सतगुरु का प्यार तो उस मालिक परमात्मा से है। परमात्मा का नाम जपना और उसका यश गाना हमें मुर्शिद के और निकट ले जाने में सहाई होता है। नाम जपने से मुर्शिद हमें हमारे अन्दर से अपना कौन सा रूप दिखाता हैं। (जिसे मालिक, ईश्वर,अल्लाह कहते हैं) इसके विषय में वह जाने यह उसकी इच्छा है। अत: एक सच्चे शिष्य को यह सोच कर अथवा मान कर नाम जपना चाहिए। न कि मुझे ‘ईश्वर’ चाहिए इसलिये नाम को जपूं। इसका भाव तो यह हुआ के “ईश्वर’ हमारे लिये मुर्शिद से बडा हो गया। एक बार शहनशाह मस्ताना जी वाली दो जहान सत्संगियों सहित किसी स्थान पर बैठे थे तो मस्ती में आकर कहने लगे, ‘जिन प्रेमियों ने सचखण्ड या अनामी देखना है वह अपनी आँखें बन्द करें। जो प्रेमी समीप में बैठे थे सभी ने आँखें बन्द कर लीं।’ शहनशाह मस्ताना जी कहने लगे कि देखो पुस्तक में क्या लिखा है :- प्रीतम की गलली के भिखारी सचखण्ड से भी बेपरवाह रहते हैं। उसके प्रेम के कैदी दोनों जहानों से आजाद होते हं?। (हाफिज साहिब) अत: सहजो बाई के वचनों को हमेशा याद रखो कि ईश्वर (रब्ब) मेरे मुर्शिद के आगे कुछ भी नहीं। क्योंकि जो कुछ हमें मिलना है, हमें अपने मुशिद से मिलना है। अत: किसी अन्य के आगे सजदा करना तो दूर उसके विषय में सोचना भी महापाप है। साईं बुल्ले शाह जी भी ‘मुर्शिद’ यार को रब्ब से आगे का बताते हुए लिखते हैं</div>
मैं क्यों कर जावां काबे नूं,
दिल लोचे तख्त हजारे नू।
लोकी सजदा काबे नूँ करदे,
साडा यार प्यारे नूँ।।
1 Comment
Gifty
(May 2, 2020 - 8:46 pm)मुर्शिद पर विश्वास खुशियों का खजाना है