मुर्शिद पर विश्वास Part-1

यकीं जब हद से गुजरा तो,

खुद की हस्ती काफूर हो गई।

एक बार की बात है कि एक शिष्य अपने मुर्शिद (एक मुसलमान फकीर) के पास उसके दरबार में रहा करता था। उसको अपने मुर्शिद पर अपनी सोच से भी कहीं अधिक विश्वास था। एक बार उस शिष्य का एक मित्र मक्का हज करने जा रहा था और वह जाता जाता उस शिष्य के पास उसके मुर्शिद के दरबार में उसको मिलने के लिए रुक गया। उस मक्का जाने वाले ने शिष्य को कहा,आओ तुम्हें मकक्‍्के का हज करा लाएँ। मित्र ने कहा, नहीं मित्र, आप ही हज कर आओ। हज पर जाने वाले ने पुन: कहा, खर्च आदि मैं कर दूंगा और आप अवश्य चलें तथा अपने जीवन को सफल बना लें। शिष्य ने फिर इन्कार कर दिया क्योंकि वह अपने मु्शिद का दर छोड़ कर किसी और के बारे सोचने की कोशिश भी पाप समझता था। वह नि:संदेह चाहे परमात्मा ही क्‍यों न हो। मक्के जाने वाला बार-बार कहता जाए कि नहीं आप अवश्य चलो। जब वह कहने से न रुका तो शिष्य ने उस के सिर को पकड़ कर माथा धरती पर स्पर्श करा दिया और दूर से आ रहे अपने मुर्शिद की ओर सिर झुकाकर उस भाई से कहा :-

तुसीं करदे तीर्थ मक्के दा,

इक दो वार हो पावे जी।

मेरे मुर्शिद दे दर दा इक गेड़ा,

लख्खां हज्जां नाल मिल जावे जी।

इतना सुनते ही शिष्य के मुर्शिद, गुरू जी भी उसके पास पहुँच गए। सारी बात जानने के बाद मुर्शिद ने शिष्य को आदेश दिया कि जाओ भाई, इसके साथ जा कर हज कर आओ शिष्य ने अपने मुर्शिद का आदेश सहर्ष स्वीकार कर लिया और उस के साथ हज करने चल पड़ा। वे एक बेडे/ में बैठ कर समुद पार कर रहे थे अचानक समुद्र में तूफान आ गया जो अत्यंत तीव्र गति से युक्त था। प्रकृति की ऐसी विडम्बना हुई कि सभी व्यक्ति डूब गए किन्तु वह अकेला (गुरू का शिष्य) बच गया। वह पानी में तैर रहा था अकस्मात्‌ समुद्र के पानी में से एक भुजा बाहर निकली और आवाज आई में वही हूँ जिसका आप हज करने जा रहे हो। मुझे अपना हाथ पकड़वा दो, मैं तुम्हें बचा लूंगा। उस शिष्य ने कहा, मैं मर तो सकता हूँ, पर मैं आपका हाथ क दापि नहीं पकड़ूँगा। क्योंकि मैंने पहले से ही अपने मुर्शिद का हाथ पकड़ा हुआ है। यदि मुर्शिद ने बचाना हुआ तो वह खुद ही बचा लेगा नहीं तो उसकी मर्जी है वह हाथ अदृश्य हो गया और फिर कुछ समय के पश्चात एक और हाथ समुद्र से बाहर निकला और आवाज आई मैं प्रभु हूँ। संसार की रचना करने वाला हूँ, मेरे कारण ही संसार का अस्तित्व है, आओ मेरा हाथ पकड़ लो, मैं तुझे किनारे पहुँचा दूँगा। शिष्य इतना सुनते ही जोश में आ गया और कहने लगा, “तेरे जैसे बीसों प्रभु मेरे मुर्शिद के दर पर पानी भरते हैं,तुम उनमें से कौन से हो? मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं मेरे सतगुरु की इच्छा हुई तो मुझे स्वयं बचा लेगा।” वह हाथ भी अदृश्य हो गया। थोडे? समय के पश्चात एक अन्य हाथ बाहर निकला और आवाज आई कि मैं तेरे मुर्शिद क धश गुरू हूँ। शीघ्र ही मेरे हाथ को पकड़ लो, मैं तुझे बचा लुंगा। शिष्य ने नम्रता से कहा आप मेरे मुर्शिद के गुरू हैं अत: मैं आप को हजार बार नमस्कार करता हूँ एवम्‌ सत्कार करता हूँ किन्तु मुझे क्षमा कर देना, मैं आपका हाथ नहीं पकड़ूँगा क्योंकि मेरे मुर्शिद के समान अन्य कोई नहीं है। बचाना,न बचाना उसके हाथ में हैं। अत: मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं है। इतना कहने की देर थी कि उसने अपना मुर्शिद सामने खड़ा देखा। मुर्शिद ने उसे छाती से लगा लिया। क्षण भर में ही शिष्य ने देखा कि वह किनारे पर खडे थे। यह कहानी सुनने में तो चाहे रोचक लगती है परन्तु स्वयं पर जब घटना घटती है तो समस्त कहानियाँ भूल जाती हैं।

अब समस्त पाठकगण तनिक इस सम्बंध में स्वयं दृष्टि डाल कर देखें कि हम किस स्थान पर खडे हैं हमारा विश्वास सतगुरु के प्रति कितना है? क्या हम संसारिक रीति रिवाजों को पूरा करने के लिए अपने सतगुरु को भुलाकर किसी दूसरे के चक्कर में नही फंस जाते? यदि ऐसा नहीं करते तो हम अपने आपक शे सचमुच ही सतगुरु के प्रति कुछ निष्ठावान समझ सकते हैं वह भी तनिक मात्र ही। स्वयं क ‘े मुरशिद के प्रेम में पूर्णतय: निष्ठावान समझने का घर तो बहुत दूर है। उपरोक्त बताए अनुसार आज के समय में कु छ न कुछ निष्ठावान बन जाएँ तो यह भी बहुत बड़ी बात है। इतिहास में दृष्टि डालें तो पुर्ण निष्ठावान के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। उदाहरणार्थ श्री गुरू तेग बहादुर साहिब जी के समय उनके कुछ शिष्यों ने मौके क :गे सरकार के शासकों का कहना ना माना अपितु दर्दनाक मृत्यु का आलिंगन करना उचित समझा, जिसके विषय में सोच कर आत्मा काँप उठती है। अपने आपको जीवित आरे से चिरवाना कोई सरल काम नहीं हैं फिर यह कहना कि चीरते समय मेरा मुख मेरे मुर्शिद के समक्ष कर दिया जाए तो में आपका आभार मानूगा क्योंकि मैं अन्तिम साँस तक अपने मुर्शिद के दर्शन करता रहूँ। इस समय भी वह शिष्य कह रहा था कि धन्य-धन्य है मेरा मुर्शिद जिसने मेरे जैसे तुच्छ व्यक्ति को इतना सम्मान दिया जो मुझे इस सेवा के लिये चुना गया। अब सोचें कि हमारा अपने मुर्शिद प्रति विश्वास एवम्‌ उस शिष्य का मुरशिद के प्रति विश्वास में कितना सा अन्तर है। हम सभी को एक ही तराजू हे नहीं तोलते किन्तु बहुत अधिक गिनती दूसरों की है।

परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज फरमाया करते:-

प्रेमी-प्रेमी हर कोई कहिंदा,

बहुते पेरमी गप्पी।

प्रेमी टप समुन्द्र जांदे,

साथों आड़ न जांदी टप्पी।

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आज के शिष्य सिर में अथवा पेट में दर्द होने के कारण मुर्शिद क गे केवल उलाहना ही नहीं देते बल्कि तुरन्त मुर्शिद का शरीक किसी अन्य क थे चुन लेते हैं और उसके आगे सिर झुका लेते हैं। देखो ! कहां तो सहर्ष अपना सिर आरे से चिरवा लेना और उफ न करना अपितु इसके लिये अपने सतगुरु का आभार मानना। कहाँ वह इन्सान जिसके सिर में दर्द होना और वह भी उसकी किसी लापरवाही के कारण दर्द होना और अपने मुर्शिद को केवल उलाहना ही नहीं देना अपितु नया गुरू अपना लेना अर्थात अन्य स्थान पर सिर झुका देना। धन्य-धन्य है हमारा सच्चा मुर्शिद जो हमारी लतियों को नजर अन्दाज कर देता है। यदि उस समय में होने वाला कार्य आज चल पडे! तो सारे संसार में से बहुत ही कम संख्या में लोग अपनी पूर्ण निष्ठा का प्रमाण देने में तत्पर हो सकेंगे।

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