दहेज बड़ा या बेटी?

तेरी ही बगिया में खिली

तितली बन आसमां में उड़ी हु,

मेरी उड़ान को तू शर्मिंदा ना कर

ऐ बाबुल मुझे दहेज देकर विदा न कर।

दहेज प्रथा कभी रिवाज था आज मजबूरी और सौदा बन गया है। लड़की का बाप होना इतना गुनाह है क्या की दहेज का बोझ भी वही सहे और अपने जिगर का टुकड़ा अपनी गुड़िया को भी दूसरे परिवार को सौंप दे। वाह रे ! जमाने क्या कठोर और अनैतिक रिवाज है तेरे।

आज शर्मा जी की बेटी की शादी थी ज्यादा अमीर तो नही पर सरकारी असफर थे तो जीवन निर्वाह जितना वेतन प्राप्त कर लेते थे। बेटी के लिए काफी सारा दहेज का सामान इकट्ठा करने में बेचारे बहुत परेशान थे,किसी से कर्ज तो कही से अपनी जमा पूंजी उठा सब लगे थे बेटी की शादी कुशल मंगल करने के लिए। बेटी की जिद्द होती तो बाप हँसी खुशी कर दे पर यह तो एक सौदा था बेटी के साथ दहेज तभी बदले में लड़का मिलेगा।

दहेज की मांग थी लड़के वालों की तरफ से जिनकी मांग भी बेहद मोटी थी, जैसे किसी दूल्हे के बजाए बदले में कोहिनूर का हीरा दे रहे हो। लड़की के बाप को झुकना ही पड़ा आखिर बेटी के हाथ जो पीले करने थे। पर ये सौदा न्यायसंगत तो नही हुआ, मांग सारी लड़को वालो की क्यों हुई? बलिदान सारा लड़की के पिता ने क्यों दिया? इन्ही को रिवाज़ कहते हैं तो आग लगे इन रिवाज़ों को।

न जाने कितनी बेटियां ससुराल जाकर इसी ईर्ष्या का शिकार होती है कि उसके माता पिता ने उसे ज्यादा दहेज नहीं दिया। प्रतिदिन के ताने औऱ घरेलू हिंसा से प्रताड़ित होकर भी घर की इज्जत के लिए चुप रहती है।

क्या ये निर्जीव वस्तुएं उस जीवित स्त्री से बढ़कर हो गयी क्या जो हम एक तरफ सामान एक तरफ उसे तोलते है, जितना भारी दहेज उतना प्यार। अगर तुम्हें इन चीज़ों से इतना प्यार है तो दुकान जाकर यही लेलो एक बेटी की ज़िंदगी क्यों खराब करते हो। शादी और सौदा आज एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द लगते हैं। दहेज दे दिया तो बेटी को ससुराल में चैन से रहेने देंगे और नही दिया उसे ही निर्जीव समझ तोड़ते हैं। एक बेटी अपना परिवार,अपने अरमान,अपनी आज़ादी छोड़कर ससुराल आती है, क्या इस बलिदान की कीमत दहेज के आगे छोटी पड़ गयी!! जो लड़की दो तो दहेज भी।

दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए अब तक कितने ही नियमों और कानूनों को लागू किया गया हैं, जिनमें से कोई भी कारगर सिद्ध नहीं हो पाया। 1961 में सबसे पहले दहेज निरोधक कानून अस्तित्व में आया जिसके अनुसार दहेज देना और लेना दोनों ही गैरकानूनी घोषित किए गए। लेकिन व्यावहारिक रूप से इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया। आज भी बिना किसी हिचक के वर-पक्ष दहेज की मांग करता है और ना मिल पाने पर नववधू को उनके कोप का शिकार होना पड़ता है।

1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था। इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए। इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए। नियम बना तो दिए जाते हैं लेकिन ऐसे नियमों को शायद ही कभी लागू किया जाता है। 1997 की एक रिपोर्ट में अनुमानित तौर पर यह कहा गया कि प्रत्येक वर्ष 5,000 महिलाएं दहेज हत्या का शिकार होती हैं। उन्हें जिंदा जला दिया जाता है जिन्हें “दुल्हन की आहुति” के नाम से जाना जाता है।

आंकड़ो की बात करे तो 21 महिलाएं प्रति दिन दहेज प्रताड़ना से मौत की शिकायत दर्ज होती है, जिनमे से केवल 34.7% केस की सुनवाई होती है। जिसमे न मात्र न्याय होता है।

मेरी राय से जबतक ये ऐसे ही झुकते रहेगे और लड़कों वालों के हुक्म सुनेगे, अपनी बेटियां यूँही जलते मरते हुए देखेंगे। किसी और के लिए न सही अपनी बेटी के लिए समाज के आगे आवाज़ उठाये।

बेटी देते हो तो दहेज क्यों,वादा लो अपनी बेटी की रक्षा का उनसे जो तुम्हारी लाडली को अपने घर ले जा रहे है बहु बनाकर। एक को तो कोशिश करनी पड़ेगी तभी बदलाव शुरू होगा,और ये बेटी के साथ दहेज़ का व्यापार बंध होगा।

करोडो लोग इस भारत देश मे यह प्रण ले चुके है कि वह बिना दहेज शादी करगें । संत डॉ गुरमीत राम रहीम जी ने देहज प्रथा बंद करने के लिए बुहत ऊँचे स्तर पर काम किया है ।

बिना दहेज शादी कर दिखाई राह….

डेरा सच्चा सौदा की प्रेरणा से हुई

लाखो बेटियां की शादी बिना दहेज के …

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