दर-बेदर को मजबूरी कहना कायरता Part 1

तेरे कूचे को छोड़ने वाले, दर-दर की धूल लेते हैं,

मजबूरी का नाम देकर, एक बहाना सा ढूंढ लेते हैं।

इस लेख के पूर्व भागों में इस विषय पर चर्चा की जा चुकी है कि पूर्ण मुर्शिद ही शिष्य के लिए सब कुछ है। यह भी बताया गया है कि एक इन्सान कैसे सतगुरु को केवल ‘मनुष्य’ समझ कर स्वयं अपना अलग अस्तित्व स्थापित कर लेता है और स्वयं गुरूबन कर बैठ जाता है। इसके अतिरिक्त सच्चे मु्शिदे-कामिल के कुछ शिष्य कैसे सतगुरु से विमुख होकर अपने आप बने झूठे मुर्शिद को वह पददवी दे देते हंः जो केवल सतगुरु के लिए बनी है। आज इस भाग में चर्चा की जा रही है कि सच्चा सतगुरु अपनी अपार रहमत, उदारता और करूणा को किस प्रकार शिष्य को प्रदान करता है और शिष्य उन रहमतों, उपकारों को अनुभव कर लेने उपरान्त भी कई बार उसकी स्थिति ऐसी क्यों हो जाती हें ?

प्रेम-मुहब्बत अथवा हकीकी इश्क एक ऐसी भावना है जो विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के भाग्य में नहीं होती। प्रेम अथवा मुहब्बत का यहां पर अर्थ किसी दुनियावी प्रेम से नहीं लिया गया है, अपितु प्रेम अथवा मुहब्बत वास्तविक तौर पर स्पष्ट करता है ‘हकीकत’ की गहराइयों में छिपे आनन्द को। ऐसा आनन्द अथवा लज्जत जिसको हकीकी इश्क की राहों पर चलकर चखा अथवा अनुभव किया जा सकता है। यहां पर कठिन राहों से भावार्थ है कि दुनिया की लज्जा, उलाहने तथा शरीयत का सामना करना और किसी मूल्य पर भी अपने सतगुरु के दर की किसी अन्य से तुलना न करना। अनेक लोग यह सोच लेते हंःः कि लाखों लोग ‘नाम शब्द’ की प्राप्ति कर के अपने गुरू-मुर्शिंद के प्रेम को प्राप्त कर लेते हैं यह कौनसी बड़ी बात है? इस प्रकार की सोच वाले व्यक्ति बड़ी भूल में हैं क्योंकि पूर्ण सन्‍्त-फकीर से ‘नाम शब्द’ की प्राप्ति कर लेना कोई छोटी बात नहीं है। सच्चा सतगुरु सब को एक जैसा प्रेम, वैराग्य एवम्‌ रूहानी सच्चा आनन्द प्रदान करता है। पर यहां पर बात शिष्य से सम्बंधित है कि वह इस स्थिति पर पहुँच कर कैसा अभिनय अदा करता है? क्या एक शिष्य सच्चे सतगुरु द्वारा बख्शे गए अनमोल नाम को निरन्तर जपकर और सततगुरु द्वारा प्रदान किये गए प्रेम, वैराग्य, रूहानी आनन्द, दैव्य गुणों एवम्‌ परमार्थी शिष्टाचार को अपनाता है अथवा क्या उनका पालन करता है? भाव सतगुरु का काम तो अनेक रहमतों को प्रदान करना है। क्या शिष्य इन रहमतों उपकारों का सम्मान करना जानता है? वास्तव में उन लोगों की सथंख्या अधिक है जो हकीकी इश्क के अर्थों को भलि-भाँति नहीं जानते। आश्चर्य तो उस समय होता है जब कोई शिष्य सच्चे एवम पूर्ण मुर्शिदिकामिल के हकीकी इश्क को समझ लेता है और अनुभव कर लेता है फिर भी उसे अपनाने के लिए प्रयास करने में असमर्थ रहता है। फिर ऐसा अनुभव होता है कि हकीकी इश्क अथवा सतगुरु के प्रेम का अधिक नहीं तो कुछ भी सम्मान करना शिष्य के वश में नहीं? इस सम्बध में मखमूर देहलवी की लिखी पंक्तियाँ उपयुक्त लगती हैं

मुहब्बत के लिये कुछ खास दिल मखसूस होते हैं,

ये वो नगमा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता।’

विद्यार्थियों के एक समूह में यदि कोई छात्र अपने अध्यापक अथवा गुरू क » सत्कार करना ही नहीं जानता अथवा उनके प्रति अपने हृदय में विशेष सम्मान देने का दृष्टिकोण नहीं रखता तो वह कदापि अपने गुरू से वह कुछ ग्रहण नहीं कर सकता जो विद्यार्थियों को ज्ञान रूप में वह प्रदान करना चाहता है। उस समूह में विद्यार्थी स्वयं भी सम्मिलित है। इसी प्रकार ही परमार्थ का विषय है। जिसमें अध्यापक अथवा गुरू स्वयं सतगुरु है, विद्यार्थी शिष्य है, ज्ञान अथवा विद्या (इश्क हकीकी’ अथवा सतगुरु का सच्चा एवम्‌ नि:स्वार्थ प्रेम है। यहाँ पर सतगुरु के प्रति सच्चा सत्कार एवम्‌ एक विशेष ऋ ण से युक्त दृष्टिकोण यह है कि अपने सतगुरु के तुल्य भूतकाल, भविष्यत काल अथवा वर्तमान काल में भी किसी अन्य क थे कुछ न समझना। इस विशेष भावना को अपने अन्त:करण में अंकित कर लेना एक सच्चे शिष्य का स्वभाव होना चाहिए। सतगुरु को प्रसन्न करने के लिए चाहे मनुष्य अपने अन्दर कितने दैव्य गुण संचित कर ले अथवा अनेकों परोपकार के कार्य करे। इससे कुछ समय के लिए तो प्रसन्नता अवश्य मिलती हंः परन्तु स्थिर समय के लिए प्रसन्नता, रहमत और हकीकी इश्क का स्थायित्व हेतु सच्चे शिष्य के लिए यह अनिवार्य है और उसका प्राथमिक कर्तव्य है कि अपने सतगुरु के समान अन्य किसी को राई के दाने जितना भी महत्व न दिया जाए। यह भी अनिवार्य है कि किसी की निनन्‍्दा भी न की जाए बल्कि सब का सत्कार किया जाए।

अनेक लोगों का कथन है कि हम दुनिया में रहते हैं दुनियादारी के अनुसार लोक-लाज क शी भी देखना पड़ता हंः। अत: कई बार किसी पीर, पैगम्बर, गुरू अथवा ऐसे किसी अकार को जिसे दुनिया ‘रब्ब’ मानती है, सजदा करना आवश्यक हो जाता है। देखा जाए तो अपनी प्रशंसा के लिए अथवा सामाजिक दृष्टिकोण से हम और भी बहुत कुछ करते हैं। परन्तु जब इन्सान को ऐसा अनुभव हो कि इस बात से उसके आत्म-सम्मान को ठेस लगेगी अथवा दुनिया उस पर हँसेगी उस बात की वास्तविकता को छिपा लेता है अर्थात्‌ उसे वास्तविक रूप कभी नहीं देता। उदाहरणार्थ हम देखते हैं कि माता के समान औरत को माता, बहन समान औरत को बहन कह कर सत्कार करता है और पुत्री समान लड़की को पुत्री कह कर सम्बोधन करता है। गैर रिश्तों का भी आदर करता है जो एक अच्छी बात है। पर वह कदापि पिता के समान व्यक्ति को पिता, पापा, डैडी कह सामाजिक दृष्टिकोण से उसे केवल ठेस ही नहीं पहुँचेगी बल्कि उसके अन्दर ऐसी सोच आने पर भी उसे दुःख अनुभव होगा।</div>

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