बिनां मुर्शिदां राह ना हत्थ आवे,
दुध बाझ ना रिझदी खीर मियां। (वारश शाह)
गुरू या उस्ताद यह एक ही अर्थ को स्पष्ट करते हैं। अर्थात मार्ग-दर्शक अथवा ज्ञान करवाने वाला। रूहानियत में मार्ग-दर्शक के लिए मुर्शिद अथवा गुरू शब्द ही लगभग प्रयोग किया जाता है। दुनियावी पढ़ाई को अगर हमने सारी आयु भी पढ़ना हो तो हमें अलग-अलग अध्यापकों या उस्तादों की जरूरत पड़ती है। जैसे स्कूल में हमें स्कूल तक के अध्यापक पढ़ाते हैं। कॉलेज में लैक्चरार या प्रोफे सर विद्या के लिए मार्ग-दर्शक का काम करते हैं। इससे आगे प्रोफेशनल कॉलेजों में डाक्टर, इन्जीनियर अथवा इंसट्रकटर आदि हमें सीध देते हैं, समझाते हं?। हम सारी उम्र उन अध्यापको या उस्तादों को याद करते हैं और अगर वह कभी मिल जाएं तो उनके घुटनों पर हाथ लगाकर उनका सत्कार करते हैं। रूहानियत के सम्बंध में भी इन्सान का अपनी जिन्दगी में अलग-अलग गुरूओं-पीरों या फकीरों से मिलाप होता है। वह सब अपना-अपना उपदेश और ज्ञान बताते हैं। जब वह इन्सान कभी जिन्दगी में किसी पूर्ण फकीर को गुरू धारण कर लेता है तो जिन्दगी में वह केवल उसी फकीर क श ही अपना गुरू या सच्चा मुर्शिद-कामिल मानता है। उससे पहले मिले अन्य फकीरों को जिन्होंने भी उसे उपदेश दिए अशिद नह उस्तादों क 2 तरह गुरू या सच्चा मरर्शिद नहीं मानता ऐसा क्यों? अर्थात एक स्वाभिमानी और सदाचारी इन्सान यह तो कह देता है कि जिन्दगी में मैंने इतनी पढ़ाई की और मेरे अमुक-अमुक उस्तादों या अध्यापकों का मैं ला लायी नही चुका सकता। क्योंकि जिन्होंने मुझे पढ़ाई की पूरी शिक्षा दी है परन्तु वह इन्सान यह कभी नहीं कहता कि मुझे रूहानियत सम्बन्धी अमुक-अमुक समय पर मिले अमुक-अमुक गुरूओं की मेहर सदका ही आज रूहानियत में मैंने उन्नति की है। अर्थात् मेरे रूहानियत के मार्ग में दो-तीन या चार गुरू हैं – ऐसा क्यों? यह बिल्कु ल सच्चाई है कि हमें दुनियावी पढ़ाई अलग-अलग अध्यापकों या उस्तादों से प्राप्त करनी पड़ती है और उनके लिए हमारे दिल में बराबर का सत्कार व इज्जत होनी चाहिए क्योंक पढ़ाई का कोई एक ही विषय नहीं है एक ही उस्ताद पढ़ा सके। इसके अनेकों विषय हैं (जैसे साईंस, मैथ, इतिहास,मैडिकल आदि) और प्रत्येक विषय को एक ही अध्यापक नहीं पढ़ा सकता।
अर्थात प्रत्येक विषय का अलग-अलग अध्यापक अथवा माहिर होता है। जिस कारण हमें अलग-अलग विषय को पढ़ने के लिए संबधित विषयों के माहिर के पास जाना पड़ता है और प्रत्येक उस अध्यापक को उस्ताद भी मानना पड़ता है, जिससे हम उस विषय का ज्ञान हासिल करते हैं। अत: यह अपने आप ही आवश्यक हो जाता है कि हमें उन सभी अध्यापकों को उस्ताद मान कर उन के लिए एक जैसा ही सत्कार, इज्जत और श्रेष्ठता हृदय में पैदा करनी पड़ती है। पैदा करनी ही नही पड़ती बल्कि अपने आप ही आवश्यक हो जाती है। इस तथ्य की हम रूहानियत के विषय से तुलना नहीं कर सकते। क्यों? क्योंकि रूहानियत जो रूह से सम्बंधित विषय है, जो सिर्फ और सिर्फ निरोल केवल एक ही विषय है अर्थात एक-वचन शब्द है न कि बहुवचन। इसलिए हमें केवल एक माहिर उस्ताद की आवश्यकता होती है। क्या हम कभी दुनियावी पढ़ाई के लिए एक विषय को उस विषय के माहिरों से पढ़ते हैं अथवा कह लो एक पाठ को ही अलग-अलग अध्यापकों से समझते हैं? कभी नहीं। हम उस विषय के माहिरों में किसी एक का चुनाव करके अथवा अपने सब से अधिक हरमन प्यारे अध्यापक से उस विषय को पढ़ते हैं और निपुणता हासिल करते हैं। तो अब जरा सोचो ! क्या रूहानियत का विषय ही ऐसा अजीबो-गरीब विषय है जिस को समझने के लिए हमें कई गुरूओं या मुर्शिदों की आवश्यकता पडे? नहीं असल में ऐसा नहीं है क्योंकि किसी भी विषय की मंजिल तक हमें उसका माहिर ही पहँ:ःचा सकता है। यह ठीक है कि दुनियावी पढ़ाई के अनेकों माहिर हो सकते हैं परन्तु रूहानियत के विषय के जो टीचर होते हैं वह कभी भी अनेकों नहीं होते। रूहानियत के माहिर को हम सच्चा संत फकीर या सच्चा मुर्शिद कहते हैं। यह भी ठीक है कि आज के युग में अपने-आप कोसनन््त-फकीर कहाने वालों की गिणती दुनियावी उस्तादों से भी बढ़ी हुई है अथवा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है परन्तु अटल सच्चाई तो यह है कि पूर्ण सन््त-फकीर अनेकों नहीं होते। जैसे कि लिखा है
सिंघों के लहिंडे नहीं, हन्सों की नही पांत।
लालों की नहीं बोरियां, सन्त न चलें जमात।
सन्त शब्द, जिसका अर्थ है जिसने मालिक परमात्मा के अन्दर दर्शन किए हों अथवा मालिक को पा लिया हो और उसे उस सच्चे मालिक की तरफ से दुनिया को सच्चाई बताने अर्थात् मालिक का सच्चा नाम जपाने का अधिकार या डिवेस कम हो। अत: यह तो स्पष्ट है कि हम प्रत्येक को ही पूर्ण रूहानी सन्त या सच्चा मुर्शिद नहीं कह सकते। मालिक, अल्लाह गॉड या वाहिगुरू की मेहर से जब हमारा पूर्ण मुर्शिद-कामिल से मिलाप होता है और हम यह महसूस भी कर लेते हैं कि वह हमारे दिल की धड़कन है, हमारी जान है। अर्थात् हमने उसी को ही सब कुछ मान लिया। सब कुछ से तात्पर्य है, जिससे आगे अन्य कोई नहीं, रब्ब (भगवान) भी नहीं। जिस मुर्शिद को हम इतनी श्रेष्ठता और सत्कार दे रहे हैं कि जिसकी विशालता के बारे में हम कल्पना भी नहीं कर सकते। जरा सोचो! क्या उस जैसा कोई दूसरा अन्य हो सकता है? कभी भी नहीं। शराब जिसको एक शराबी किस्म का इन्सान पीता है और नशे में झूमता है। वह हर रोज नई बोतल लेकर आता है। रास्ते में प्यार से बोतल को दस मता है। घर आकर बोतल खोलकर शराब जाता है और खाली बोतल को फैंक देता है। अब कल्पना करो कि एक ऐसी बोतल हो जिसको हाथ लगाना या खोलना तो दूर की बात रही उसे केवल देखने से ही नशा हो जाए। अर्थात् वह इन्सान शराबी हो जाए तो क्या वह शराबी उस अनोखी बोतल की तुलना किसी दूसरी अन्य बोतल से करेगा? कभी भी नहीं। उस शराबी इन्सान के लिए दुनिया में उस अनोखी बोतल जैसी कोई दूसरी वस्तु नहीं होगी। इस उदाहरण से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि शराब जो कि बुराइयों की जड़ है और शराबी भी कई बार यह मानता है कि शराब कम है और शराब की वह अनोखी बोतल पर वह उसे फिर भी नहीं छोड़ता और उसके नशे में ड्रब जाता है। रूहानियत का विषय जिसे कि आदि-जुगादि से सर्वश्रेष्ठता गई है और आज भी दी जाती है। इसके माहिर या पुंज पूर्ण मुर्शिदे-ककामिल जैसा कै कोई अन्य हो सकता है, जिसके चेहरे पर ऐसी कशिश या नूर झलकता है जो कि ऊपर लिखित अनोखी बोतल (जिसे कि केवल देखने से नशा हो जाता है) से कहीं बढ़कर मिकनातीसी खिंचाव से हर समय भरपूर रहता है। अब हम आप ही अन्दाजा लगाएं कि यदि एक शराबी जोकि शराब को गलत भी मानता है परन्तु शराब के मिलने से वह उसे किसी कीमत पर भी छोड़ने को तैयार नहीं होता। एक ऐसा इन्सान जो रूहानियत को सदा सर्वश्रेष्ठता देता आ रहा है, पूर्ण सतगुरु मिलने पर और महसूस कर लेने पर कि मेरा मुर्शिद सब कुछ है, तो क्या वह अपने माहि किसी अन्य को मान लेगा? नही स्वाभिमानी इन्सान है तो वह ऐसा सोचना भी पाप समझेगा। अपने सतगुरु प्यारे के प्रेम में रंगे हुए किसी ने क्या सुन्दर ब्यान किया है</div>
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जाम पर जाम पीने से क्या फायदा,
रात गुजरी तो सारी उतर जायेगी।
तेरी नजरों से पी है तुम्हारी कसम,
उमर सारी नशे में गुजर जायेगी।