‘इश्क को दुनिया खेल ना समझे, काम है मुश्किल, नाम हैआसां।’
पदार्थों की तरफ जितना ज्यादा ध्यान केन्द्रित होगा सुमिरन की चाल उतनी ही कम बनेगी, यह एक साधारण तथ्य है। इसके बारे में खोल कर बताने की कोई खास जरूरत नहीं। मनुष्य की बचपन की अवस्था पदार्थवाद की दौड़ में सबसे कम शामिल होने वाली अवस्था होती है। केवल कुछ खाने-पीने और खेलने वाली वस्तुओं के बिना और चीज़ों की प्राप्ति वाली चेतना उस समय नहीं होती। केवल खिलौनों को प्राप्त करना और उनकी प्राप्ति के साधनों से अनजान एक बच्चे की सोच में जिद या हठ के अंश का आना एक आम बात है। अगर हम बच्चे को बड़े होने पर एक सही इन्सान देखना चाहते हैं तो बचपन की अवस्था से ही उसको पूर्ण मुर्शिद की सोहबत निरंतर करवाई जाए और यह आज के कलियुग के समय में एक विशेष बात भी होगी। इसके बारे पूजनीय हजूर पिता ‘संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां’ आम ही फरमाते हैं :-
“आज के समय में माँ-बाप अपने बच्चे को नोटों की मशीन बनाना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि हमारा बच्चा बड़ा होकर डॉक्टर या इंजीनियर बने या फिर ऐसा पद प्राप्त करे जिससे नोट ज्यादा से ज्यादा आएं। क्या कभी यह भी सोचा है कि बड़ा होकर वह एक अच्छा इन्सान भी बने?” पूर्ण फकीर की कही बातों को सुनकर मानने वाले कई सज्जन पुरुष (मां-बाप) ऐसे भी होते हैं जो अपने बच्चे के दुनियावी भविष्य के साथ-साथ उसके शुद्ध भविष्य की चेतना (भविष्यमें उसकी सोच शुद्ध तथा पवित्र हो) के बारे में सोचते हैं इस सम्बंधी एक आँखों देखी उदाहरण इस तरह है :- जैसे उपरोक्त पंक्तियों में लिखा है कि बचपन की अवस्था में बच्चे के अंदर जिद्द के कण आम ही फूट पड़ते हैं तो मेरे एक मिलने वाले प्रेमी सज्जन ने मुझे बताया कि मेरा एक नौ साल का बेटा है कुलदीप। दो साल पहले सच्चे पातशाह जी से उसको नाम शब्द दिलवाया गया। वह फूरटी (आम का पैक किया हुआ जूस) पीने का काफी शौकीन है।
डेढ़ साल पहले की बात है उस समय गर्मियों की ऋतु थी, वह हर रोज एक फ्रूटी पीने की जिद्द करता था अगर दिन में दो या तीन बार भी फ्रूटी पीने का मौका मिलता था तो उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं होता। परंतु उसकी मम्मी उसको हर रोज कम से कम एक फ्रूटी तो ले ही देती थी।जिसको पीकर वह बहुत खुश होता। मैं अक्सर सोचता रहता कि सच्चे पातशाह जी फरमाते हैं कि, बचपन की भक्ति मालिक पहले दर्जे की मंजूर करता है। कई बार यह ध्यान में आता कि पिता जी तो यह भी कहते हैं कि सोचो, आपका बच्चा बड़ा होकर इंसान कैसे बनेगा? इन वचनों का ख्याल आने से मैं यह सोचने के लिए मजबूर हो जाता कि कुलदीप को किसी तरह मालिक की तरफ भी लगाया जाए ताकि उसमें अभी से ही नेक तथा अच्छे ख्याल भर जाएं और बड़ा होकर एक नेक व पाक विचारों वाला इंसान बन जाए।
उन दिनों मुझे एक सोच सूझी। मैंने अपनी पत्नी से कहा कि आज के बाद इसको फूरटी नहीं लेकर देनी। पत्नी द्वारा कारण पूछने पर मैंने उसे कुछ समझाया। उसके बाद उसने उसी तरह किया। कुलदीप तीन-चार दिन फ्रूटी न मिलने के कारण बेचैन रहा। एक दिन वह मेरे पास आकर थोड़ी सी पोपलीला करके फ्रूटी दिलाने के बारे में कहने लगा। मैंने सोचा अब लोहा गर्म है, अब चोट लगानी चाहिए। मैंने उसको प्यार से अपनी गोद में लिया और कहा कुलदीप! यार, अगर तू मेरी एक बात माने तो मैं तेरी फ्रूटी का कोई न कोई जुगाड़ कर सकता हूँ। उसने पूछा, क्या डैडी? मैंने कहा, देख भाई दोस्त! अगर तू मेरे पास बैठकर रोज दस मिनट सुमिरन किया करे तो उस दिन तेरी फ्रूटी पक्की। उसने उसी समय ही ये काम शुरू कर दिया। उसने मेरे साथ बैठकर दस मिनट सुमिरन किया, पांच सात बार, घड़ी की तरफ भी देखा, मैंने उसको फ्रूटी ला दी। फिर तो वो मेरे या अपनी मम्मी के पास बैठ दस मिनट सुमिरन जरूर करता। कई बार तो पहले से दो-तीन मिनट अधिक भी कर लेता। पर बदले में एक फ्रूटी जरूर ले लेता। इस तरह और भी कई नेक शिक्षाओं की उपज बच्चे के अंदर लालच द्वारा भरने की सफल कोशिश की गई।
सर्दियां आते ही फ्रूटी का मौसम भी चला गया और हमने उसे फूरटी देनी बंद कर दी पर उसका रोजाना दस-बारह मिनट सुमिरन करने का रूटीन पक्का ही बन गया जो आज तक भी जारी है। इसी आदत के कारण उसमें पढ़ाई, जनरल नॉलेज़ और खेलों में आगे से तरक्की के अंश दिखाई दे रहे हैं और लोग-व्यवहार तथा मनुष्य-दर्द सम्बंधी संवेदनाओं के नए अंकुर फूटते भी हम साफ महसूस करते हैं। किसी शायर ने इन्सानियत व इन्सान के बारे में लिखा है :-
दर्दे-दिल, पासे-वफ़ा, जज़बा-ए-इंसान होना,
आदमियत है यही और यही इंसां होना।
मेरे उस मित्र की बात सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई और मैंने सोचा कि सतगुरु अपने शिष्य के अलावा उसकी अगली पीढ़ियों का भी जिम्मेवार बन जाता है। धन्य है हमारा सतगुरु, धन्य-धन्य है, पर जो लोग कहते हैं कि उनको खुद को इतने वर्षो में क्या मिला, ऐसे लोग एक बड़ी भूल में हैं। ऐसा भुलेखा उनको शायद ही कभी महसूस होता होगा। असल में इन्सान पदार्थों को ही सब कुछ समझता है। सोचो! जो रहमत सच्चे दाता जी ने उस प्रेमी के बेटे पर की क्या वह किसी भी तरह के धन-पदार्थों से प्राप्त की जा सकती थी? बिल्कुल नहीं। अगर बच्चा बड़ा होकर इन्सानी गुणों की बजाय हैवानी सोच का मालिक बन जाए तो पहले से इकट्ठी की धन-दौलत भी खत्म होने के साथ-साथ सामाजिक इज्जत-सत्कार के पतन का कारण भी बन जाती है।
मुर्शिद को पता होता है कि मेरे शिष्य के लिए कया जरूरी है, इसीलिए वह उसको वही वस्तुएं देता है जो उसके भविष्य के लिए जरूरी और फायदेमंद हों। परंतु इन्सान उन रहमतों को न पहचानकर अपनी गैर-जरूरी मांगों की पूर्ति पर ही जोर देता रहता है, जो उसको कभी न कभी अपने सतगुरु के प्यार से तोड़ने का कारण बनती हैं।
एक पूर्ण फकीर अपनी कुटिया में रहा करते थे। उनका एक शिष्य भी वहीं उनके पास कई सालों से रहकर उनकी सेवा कर रहा था। वह फकीर अकसर ही जीवों को समझाते हुए कहते कि पारस के साथ लगकर लोहा भी सोना बन जाता है। इस तरह अच्छे, नेक कर्म करने तथा मुर्शिद के कहे अनुसार चलने वाले जीव के ऊपर अपार रहमतें बरसती हैं इत्यादि। एक दिन शिष्य के मन में आया कि मैं इतने वर्षों से गुरू जी के पास रह रहा हूँ, मुझे तो कुछ खास प्राप्त नहीं हुआ। जैसा पहले दिन यहां आया था वैसा ही अब हूँ। क्यों ना गुरू जी से आज्ञा लेकर गाँव चला जाऊँ, बहुत सेवा और भक्ति हो गई है। यह सोचकर उसने गुरू जी से आज्ञा माँगी। फकीर यह सुनकर एक पल के लिए चुप हो गए। फिर कहा, ठीक है भाई, जैसी तेरी मर्जी। अगर तू जाना चाहता है तो जा, परंतु हमारा प्यार हमेशा तेरे साथ है। वही प्रेम जिसे शिष्य चाहे भूल जाए परंतु पूर्ण मुर्शिद अपने शिष्य को किसी समय बख्शे गए प्रेम को कभी भी उस से अलग नहीं करते।
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