बे-कसी में उनकी रहमत का इशारा मिल गया।
गिरने वाला था, मगर मुझको सहारा मिल गया।
उपरोक्त पंक्तियों में शायर ने यहां इंसानी दिल के किसी निजी अनुभव को आधार बनाकर अपनी भावनाओं को प्रकट किया है। कहने को चाहे कोई कुछ भी कहता रहे, परंतु सच को मानने वाले लोगों का अंदरूनी अनुभव यही कहता है कि इंसान अपनी सीमित बुद्धि के प्रभाव में आकर कभी ना कभी अपने मुर्शिद-ए-कामिल को, बेशक एक पल के लिए ही, केवल एक बंदा मात्र समझ लेता है जबकि यथार्थ में ऐसा नहीं है। असल में इन्सानी मन हर समय कुछ ना कुछ विशेष और नई क्रियाएं देखने को ललचाता रहता है, इसीलिए मुर्शिद द्वारा बख्शे गए पवित्र ‘शब्दों’ का सुमिरन न करने की वजह से इन्सान में बाहरी नाकारात्मक चेतना का उत्पन्न होना कोई बड़ी बात नहीं। ‘शब्द’ के सुमिरन द्वारा मिलती ऊर्जा-शक्ति में कमी आने का कारण नाकारात्मक सोच का अंदर आना है। ऐसी सोच चाहे बिल्कुल साधारण सत्र की ही क्यों ना हो, पर एक साधक को सूक्ष्म रूहानी विघटन की तरफ ले जाने का काम करती है।
साधक पुरुष के अंदरूनी पवित्र ख्याल उसको ‘शब्द’ के सुमिरन संबंधी उस के ऊपर दबाव डालते हैं और वह अपने सतगुरु की रहमत से अंदर उत्पन्न हुए पवित्र ख्याल को अगर मान लेता है तो उसकी रूहानी ऊर्जा वाली कमी कुछ एक दिनों में ही पूरी हो जाती है। परंतु अगर किसी कारण घटी ऊर्जा को पूर्ण करने की बजाए वह अपने खुद में कुछ विशेष पॉवर को ढूंढने लग जाए तो फिर रूहानियत के इस सफर में मंजिल की तरफ बढ़ रही आत्मा के राह में रुकावट का आ जाना लाज़मी हो जाता है।
बाहर एक सीमित स्तर की दुनिया और अंदर ले अथाह संसार के बीच अंतर के बारे यह बाहरी दुनिया रूहानियत के समुद्र में एक बाल के सामान है। अपने शहनशाह जी के पवित्र मुखारबिंद से सुना होने के बाद भी साधक पुरुष का मन पदार्थवाद की तरफ भागता है। यह बेचैनी भरा मन कई
बार इन्सान के अंदर इस कदर बेचैनी भर देता है कि साधक अपनी रूहानी ऊर्जा को मन के कहे लग कर मुर्शिद के प्यार को भी एक सूक्ष्म और शीत युद्ध की तरफ लगाने लग जाता है। अगर चंदन के वृक्ष के पास होने कारण अरिंड का पेड़ भी खूशबूदार हो सकता है तो पूर्ण फकीर की निरंतर सोहब्बत का असर उसके भक्त पर क्यों नहीं पड़ेगा, जरूर ही पड़ेगा।
पर जैसे कि ऊपर बताया गया है कि अंदर में फिट यह बेचैनी भरा मन सब कुछ जल्दी से जल्दी होना ढं:ढता है। ऐसा होना इंसान के अंदर पूर्ण तौर पर पाक-साफ और खाली बर्तन के सिवा अंसभव है। बर्तन अगर खाली होगा तो ही तो उसमें रूहानी ऊर्जा के अंश एक निरंतर चाल में गिरेंगे। साधक पुरुष के संचित कर्मों को साफ करने के बाद बचती ऊर्जा थोड़ी-थोड़ी करके जब उसके अंदरूनी बर्तन में जमा होती जाएगी तो ही एक-ना-एक दिन वह बर्तन पूरा किनारों तक भरेगा और फिर ही मंजिल पर पहुँचा जा सकेगा। बेशक पूर्ण सतगुरु की अपनी भी एक विशेष रहमत सदा उसके साथ-साथ होती हुई उसकी मदद करती रहती है पर सतगुरु पूर्ण तौर पर सच होते हुए थी कोई ऐसा चमत्कार ऐसे ही उसको नहीं दिखाता जो इन्सान को सदा अस्थिर स्थिति में रहने वाले मन की उपज के अनुकूल हो।
पूर्ण फकीर अपने मुरीद को पदार्थवाद की दौड़ से दूर ले जाकर उसको परम-पद की तरफ ले जाना चाहता है, परंतु कई बार साधक-पुरुष परम-पद की तरफ तो जाना चाहता है परंतु साथ ही किसी समय ‘शब्द’ के सुमिरन में समय की कमी आ जाने के कारण कुछ पदार्थवादी चेतना उसमें उत्पन्न होने लग जाती है। ऐसी चेतना उसको मंजिल तक ले जाने वाले समय को बढ़ाने का कारण बनती है। टूटी हुई मौके पर बांधने का प्रावधान भी रूहानियत के इस सफर में शामिल है। वह इस तरह कि रोजाना दो घंटे सुमिरन करने वाले शिष्य से अगर एक दिन सुमिरन नहीं हुआ मतलब कि सुमिरन टूट गया तो जरूरी है अगले दिन कम से कम चार घंटे तो भजन-सुमिरन में वह जरूर ही लगाए। अगर अपनी तरफ से सुमिरन करना छूट जाने की गलती पर अफसोस जाहिर करना है तो यह भी जरूरी है कि उस समय से आधा समय और दे ही दिया जाए तो यह एक बढ़िया और लाभदायक क्रिया होगी। मतलब कि पांच घंटे का समय देना चाहिए।
लेकिन क्या भक्ति करना ही काम और कोई काम नहीं केवल भक्त नकर ही बैठ जाएं? नहीं जी! आपके ऊपर कोई दबाव नहीं डाला जा रहा कि आप ऐसा ही करो । परंतु एक साधक जो एक अह्य और सबसे विशेष मंजिल की तरफ जाने का चाहवान है उसके लिए रोज का दो घंटे सुमिरन और छूट जाने से अगले दिन का पांच घंटे सुमिरन में लगाना कोई ज्यादा नहीं। बाकी करने वाले तो रोज के आठ-आठ, नौ-नौ घंटे भी सुमिरन करते हैं और बाहर किसी के आगे कभी जाहिर तक नहीं करते। कोई ताज़ा-ताज़ा इस राह पर चलने वाला साधक शायद यही ब्यान करता होगा