अवगुणों से भरपूर मनुष्य Part-2

एक साधारण इन्सान (शिष्य) चाहे कितने भी दैव्य गुण अपने अन्दर उत्पन्न कर ले रूहानियत के मार्ग में चलने क 7 दृढ़ संक लप लेकर स्वयं को प्रत्येक ओर से सुरक्षित रखते हुए उस मार्ग पर चले जो उसे उस लक्ष्य तक पहुँचाता है। मुर्शिद के फरमाए गए सभी वचनों पर अत्याधिक अमल भी करे यहां तक कि वह अपने निश्चित किये हुए लक्ष्य तक भी क्‍यों न पहुँच जाए। तो भी उस स्थिति तक पहुँचने के विषय में कभी भी अपने अंदर सोच न आने दे जहाँ तक उसक श«ः मुर्शिद उसे पहुँचा हुआ अनुभव होता हैं। संक्षेप में अन्तिम बात यह है मुर्शिद जिस स्थिति में है उसके विषय में सोचना भी कल्पना से बाहर की बात है। इस हिसाब से एक शिष्य जो मुर्शिद की स्थिति अपने अन्दर अनुभव करता है, वह भी उसकी तंग सोच एवं बेसमझी की प्रतीक प्रतीत होती है। शेष उस स्थिति तक पहुँचने के विषय में सोचना अथवा प्रयास करना एक महामूर्खता एवं अपने आप को धोखे में रखने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता। शेष रही मुर्शिद की अपनी मौज, खुशी और राज की बात कि वह अपनी रजा (इच्छा) अथवा किसी विशेष आवश्यकता के आधार पर स्वयं को साधारण लगते हुए इन्सान में प्रकट कर ले। इस प्रकार का व्यक्ति कोई साधारण नहीं होता, प्रत्युत वह भी मुर्शिद की आज्ञानुसार किसी विशेषता के लिए बना एक विशेष अस्तित्व होता है। जिसके अन्दर बैठकर,समय आने पर मुश>र॒ृशिद अथवा मुर्शिद की शक्ति, विश्व में प्रकट हो चुकी अखण्ड ज्योति को स्थायित्व प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त सतगुरु अपने पूर्व शरीर द्वारा साधारण लोगों को विश्वास दिलाता है कि यह मैं ही हूँ। मुर्शिद सर्व शक्तिमान ताकत का नाम होता है, परन्तु फिर भी वह अपनी इच्छानुसार सृष्टि के दायरे में रहता है किसी प्रकार का ऐसा पग नहीं उठाता जो प्रकृति के नियमों के विपरीत हो। भावार्थ यह है कि सच्चा मुर्शिद मालिक की उस अखण्ड ज्योति को बरकरार प्रकट रूप में संसार में विचरने हेतु समयानुसार अपना शरीर बदलता रहता है। इसीलिए तो कहा गया है :-

बदलदी मय हक *गकी नहीं पैमाना बदलदा रहिंदा।

सुराही बदलदी रहंदी, मयखाना बदलदा रहिंदा।।

उपरोक्त तथ्य यहां लिख देना इसलिए अनिवार्य था कि कई बार कुछ लोग यह सोच लेते हैं कि अमुक समय में एक साधारण दिखाई देता इन्सान मुर्शिद कैसे बन गया? शेष जिन लोगों को अपने मुर्शिद पर दृढ़ तथा पूर्ण विश्वास होता है, क्‍यों, किन्तु से स्वतन्त्र होते हैं। वे अपने अन्त:करण में ऐसे विचार आने ही नहीं देते। परन्तु जो व्यक्ति अपने मुर्शिद के तुल्य बन बैठता है उसकी गणना किस शीर्षक से की जाए? अथवा किस पंक्ति में उसको सम्मिलित किया जाए? इसके विषय में निर्णय लेना कठिन प्रतीत हो रहा है। यह अटल सच्चाई है जो ऐसा करता है वह बहुत बड़ा अपराधी होता ही है परन्तु जो सच्चे मुर्शिद का शिष्य होकर झूठे मुर्शिद को सिर झुकाता है वह उससे भी बड़ा अपराधी होता है। क्योंकि ऐसे श्रद्धालुओं के कारण ही ऐसे अकत्घन (मुर्शिद के तुल्य बना झूठा मुर्शिद) इन्सान को उकसाहट प्राप्त होती है। जिस के द्वारा बुराई का प्रतिनिधी बन कर निराश हो चुकी आत्माओं को और भी दुखी करता है।चाहे सच्चा मुर्शिद एक असीम अजर-अमर शक्ति का नाम है और जो चाहे करने की क्षमता रखता है। मुर्शिद चाहे तो ऐसे पाखण्डी को दण्ड भी दे सकता है अथवा ऐसे कार्य करने से वर्जित भी कर सकता है परन्तु पहले बताया जा चुका है कि सच्चे मुशिद पूर्ण सन्त का विस्तार प्रवाह, सोच और दायरे की विशालता का अनुमान लगाना इन्सान के वश से बाहर की बात है। चाहे मुर्शिद का हाथ किसी प्रकार से भी उस परम पिता परमात्मा के हाथ से कम नहीं होता,अपितु उस मालिक का तो सारा काम सच्चे पूर्ण फकीरों के द्वारा ही चलता है। परन्तु फिर भी सच्चा फकीर अपनी रजा के बिना क शोई काम नहीं करता। अपनी रजा शब्द इसलिए प्रयोग किया गया है क्योंकि सच्चा मुर्शिद खण्डों-बह्मण्डों का बादशाह होता है। कभी किसी का बंधा हुआ नहीं अथवा किसी के पराधीन नहीं जो किसी की इच्छानुसार चले। फिर वह चाहे कोई भी क्‍यों न हो क्योंकि ‘ऐनल हक’ शब्द का सत्य तौर पर प्रयोग करना कोई खाला जी का घर नहीं जो हर कोई कर सके। चलो हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि मुर्शिद के तुल्य झूठा मुर्शिद बन जाना उस बनने वाले के कर्मों और उसकी सोच पर आधारित है।  अपने तुल्य झूठे मुर्शिद का विरोध न करना उस सच्चे मु्शिद की महानता है। अब शिष्य का इसके प्रति क्‍या कर्तव्य बनता है? क्या एक इन्सान (शिष्य) सत्य की प्राप्ति के लिए परमार्थ के मार्ग पर चलता है अथवा धड़ाधड़ संसारिक खाने-पीने की तुच्छ वस्तुओं के लिए तथा किसी अन्य संसारिक लाभ की दौड़ में परमार्थ का मार्ग चुनता है?

वास्तव में इस सम्बन्ध में गहरी नज़र से देखें तो ज्ञात होता है कि संसार में दो प्रकार के शिष्य होते हैं। प्रथम प्रकार के शिष्य जो साधारण संसारिक मन की ओर लगने वाले जीव होते हैं जो परमार्थ के विषय में कुछ नहीं जानते। सत्य, असत्य का किंचित ज्ञान नहीं रखते। ऐसे लोग सच्चे सतगुरु के तुल्य झूठे मुर्शिद की ओर कुछ संसारिक पदार्थों के क शरण अथवा अन्य किसी कारण से आकर्षित होते हुए उसके शिष्य बन जाते हैं। दूसरी प्रकार में वे शिष्य आते हैं जो पहले सच्चे मुर्शिद (जिसे परमात्मा से भी ऊंचा दर्जा दिया गया है) के प्रेम का आनन्द अनुभव कर चुके हों, सच को समझ चुके हों, उसे परमात्मा से भी आगे समझ चुके हों, मुर्शिद के प्रति उठी वैराग्य मयी लहरों में प्रवाहित हो चुके हों। जब ऐसे प्रकार के शिष्य अपने मुर्शिद के तुल्य झूठे मुर्शिंद को उस नज़र और श्रद्धा से देखते हों जो केवल सच्चे मुर्शिद के लिए ही बनी हैं, तो फिर ऐसे शिष्य अथवा सिक्‍्ख को क्या कह कर अभिवादन किया जाए अथवा क्या पारितोषिक देकर सम्मानित किया जाए? इस विषय में निर्णय लेना भी कठिन प्रतीत होता है। क्योंकि ऐसे शिष्य के लिए संसारिक दृष्टि से कोई तमगा नहीं बना प्रतीत होता, पर्याप्त खोज करने के पश्चात यह बात लिखी है जी। इसी प्रकार के शिष्य की दुर्भाग्यता की तुलना किन शब्दों से की जाए अथवा ऐसे शिष्य के प्रति सच्चे सतगुरु के दिल में जो नाराजगी भरा प्रवाह चल रहा होता है उसको हम कैसे वर्णित करें? क्योंकि सच्चा मुर्शिद इस प्रकार के भावों को कभी भी अपने शिष्यों के समक्ष प्रक ट नहीं करता। इसलिए दोनों बातें हम जैसी अल्प बुद्धि वाले इन्सान के लिए कल्पना की गहराईयों से बाहर की हैं।

जब सच्चे मुर्शिद का इलाही प्रेम एक इन्सान प्राप्त कर लेता है तो यह कोई छोटी बात नहीं। जो और कुछ पीछे रह गया? मुर्शिद के झूठे सानी को सजदा करने वाला शिष्य बहुत बड़ी भूल तथा बे-समझी का शिकार हो जाता है जो यह सोच लेता है कि इस से पहले पा चुका मुर्शिद का प्यार अथवा रहमत को प्राप्त करना कोई बडी बात नहीं। लाखों लोग इधर-उधर चल रहे हैं। ऐसा शिष्य उस समय दया का पात्र भी बन जाता है कि वह अपने आप को कहां लेकर जा रहा है। जैसे कि अडियल घोड़ा अपने हठ के कारण सवार को दलदल में ले जाता है जहां पर स्वयं का भी बचने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। इसी प्रकार ही ऐसा शिष्य बेमुखी दलदल में फंसते समय सच एवं सतगुरु के प्रेम से भरपूर शीतलता को अनुभव करने वाली शक्ति को गवा बैठता है। वह यह भी भूल जाता है कि मेरा मुर्शिद जिसका कोई सानी नहीं है उसने मेरी दयनीय अवस्था को देखकर कितनी रहमतें एवम्‌ दया करके मुझे अपने विशाल एवम्‌ हर प्रकार की परेशानियों से आजाद दायरे में लाने की जरूरत को ध्यान में रखकर अपने अतयन्त वैराग्यमयी सच्चे एवं परमानन्द से युक्त अन्त:करण में स्थान दे दिया था। मेरे मुर्शिद ने पता नहीं मेरे कितने बुरे कर्मों को एवं पापों को इस प्रकार आंखों से ओझल करके अथवा स्वयं ऊपर लेकर उस कठोरतम दण्ड से बचा लिया जिस के विषय में सुन कर ही आत्मा कांप उठती है और आंखें खड़ी की खड़ी रह जाती हैं। ऐसा शिष्य उस समय यह भूल जाता है जब वह अपने किए कर्मों की ओर दृष्टि डालकर सतगुरू को वैराग्यमयी अंदाज से करूणा के लिए विनय कर रहा था।

मेरे सिर ते भार गुनाहां दा,  कित्थे लै जावां, कित्थे टुर जावां।

बस दाता मेरेया जुल्मां दी, पण्ड तरे लुकाइयां लुकदी है।

मेरे दिलबर, मुर्शिद, यार, खुदा, गल्ल तेरे कर्म ते मुकदी है।।

सच्चे मुर्शिद के एक शिष्य अथवा उसकी आत्मा पर की दया उस समय जब वह झूठे गुरू को नमन करने के लिए झुकता है तब एक भूला हुआ स्वपन बनकर रह जाती है, जो सतगुरू ने किसी समय उसके प्रति रहमत की एक झलक दी थी। जैसे किसी अयोग्य पुत्र का पिता उसके भारी अपराध के कारण पुलिस की पिटाई से उसे बचाने के लिए पुलिस के समक्ष कैसी कैसी मिन्नतें करता है कि भविष्य में उसका लड़का ऐसा अपराध नहीं करेगा उसको क्षमा कर दो जी। यह आपकी पिटाई सहन नहीं कर पाएगा अत: उसे कुछ न कहौ जी। मुझे इसका दण्ड दे दो जी। पुलिस पुत्र को छोड़ते समय क्रोध में आकर पुत्र की गलती की सजा एक पिता को दे दे। अर्थात पुत्र की गलती की सजा एक पिता उसकी शारीरिक अवस्था एवम पुत्र मोह के कारण स्वयं स्वीकार कर ले। इस नजारे को क्षण भर शांत हृदय से अपने मन में लाओ, किस प्रकार अनुभव होता है? यह तो थी एक दुनियावी पिता की पुत्र को की गई कुर्बानी। परन्तु एक सिक्ख अथवा शिष्य के अनगिणत बुरे कर्मों को जब सच्चा मुर्शिद उस आने वाले कठोरतम तथा भयानक दंड से बचाने के लिए अपने ऊपर ले लेता हैतो ऐसा दृश्य अपनी आंखों के आगे ले आना भी एक सच्चे सिक्‍्ख के लिए किसी दंड से कम नहीं। परन्तु फिर भी शिष्य यह सब इस प्रकार भूल जाता है जैसे कोई वस्तु कहीं रखकर भूल जाते हैं। शिष्य यह भी भूल जाता है जब सतगुरु की रहमत का आशीर्वाद मिलने के पश्चात आत्मा में से किस प्रकार मुर्शिद के इलाही, सच्चे एवम जबरदस्त प्रेम में वैराग्य युक्त मुख से रो रो कर यह शब्द अपने आप निकलते थे। इस विषय में हजूर पिता जी फरमाते हैं :-

रहमत-ए- मुहब्बत जो मुर्शिद जी की है,

बेगमपुर में रहने की इजाजत जो दी है।

प्यारे मुर्शिद तुझ पे करूं क्‍या कुर्बा जी,

गम सारे ले के दिया, खुशियों का बीस्तां जी।

ऐसा इन्सान सब कुछ ही भूल जाता है? हां ! यह बिल्कुल सच है क्योंकि सब कुछ भूल जाने पर वह एक भिजन्न मार्ग का चुनाव कर लेता है। यदि कुछ याद हो तो क्‍यों स्वयं को ऐसी दलदल में फंसाए? कहां तो यह कहा जाता है कि मुर्शिद के प्रति सच्चे प्रेम में चल रहे प्रवाह, वैराग्यमयी हो चुके अन्त:करण और उसके दर्शनों की आनन्द लेती आंख के नीचे से जब किसी गैर की तस्वीर गुजर जाए तो आत्मा की अवस्था ऐसी हो जाती है जैसे किसी हृदय-पुष्ट चूहे को एक बिल्ली पकड़कर प्राण तो न ले पर प्राण लेने में कोई कमी न छोडे। कहां क्षण भर में सब प्रकार की मर्यादाओं को लांघ कर इन्सानी गौरव को नज़रअन्दाज कर के एक शिष्य वह सब कुछ कर बैठता है जिसके लिए क्षमा का शब्द रूहानियत के कोष में कहीं दृष्टिगत नहीं होता। क्योंकि सच्चा मुर्शिद ऐसी कोई वस्तु अपने शिष्य से छुपाकर नहीं रखता जो उसके लिए जायज हो। उसकी भावना अनुसार वह हर प्रसन्नता प्रदान करता है जिसके लिए शिष्य कई बार अधिकारी भी नहीं होता। कई बार मुर्शिद ऐसी रहमतों के खजाने खोल देता है जिस के विषय में शिष्य ने कभी सोचा भी नहीं होता। अब यदि फिर भी शिष्य वही काम करे जिसे रूहानियत में सबसे बडा अपराध माना गया है तो फिर ऐसे शिष्य के सम्बन्ध में क्या कहा जाए अथवा क्या उपाधि दी जाए? समझ से बहुत दूर है। इसके विषय में परम पूजनीय हजूर सच्चे पातशाह सन्त डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां अपनी एक कव्वाली में फरमाते हैं</div>

मुर्शिद मिल जाए सच्चा बताइए और क्‍या पाना,

गुनाह है बहुत भारी, आंखों में गैर क लाना।,

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