पनपते आश्रम ; सिकुड़ते रिश्ते…

ज़ाहिर तो होता ही होगा शीर्षक से मेरा संकेत किस तरफ है। आज आश्रम पनपने के कारण ही रिश्ते है,इतनी कड़वाहट भर गई है लोगो के अंदर रिश्तों के प्रति स्वार्थ खत्म तो रिश्ता खत्म।

न केवल अनाथ आश्रम किन्तु वृद्ध आश्रम भी इतने ही बढ़ते जा रहे हैं, और उनमें बेबस लोगों की भीड़। कोई अपनी मर्दांगी दिखा लड़की पैदा कर उसे कूड़े के ढेर में या आश्रम में छोड़ जाता है, तो कोई झल्लादपन की हद पार कर बूढ़े माता पिता को धक्के देकर बेघर कर देता है।

कोई इतना कैसे गिर सकता है कि जिस बाप ने उसे चलना सिखाया, जमाने के तौर तरीके सिखाएं, समाज मे इज्जत दिलाई। दिन रात मेहनत करी ताकि अपनी औलाद का जीवन सुखद बना सके। और बदले में औलाद उसे वृद्ध आश्रम के दरवाजे भेज देती है।

शर्म आती है ऐसी स्वार्थी मानसिकता देखकर जो काम निकलते ही ऐसे किसी को कचरे की तरह उठाके फेंक दें। आज न कोई रिश्तो में इज्जत बची न प्यार,बस स्वार्थ भावना दिखती है।

क्या गलती होती है उन मासूमों की जिन्हें पैदा होते ही खुद के घर के आंगन के बजाए अनाथ आश्रम के घेरे दिखते हैं। लोग पैदा करके उन्हें कूड़े के ढेर में फेंक देते हैं जैसे गुनाह उन्होंने ने नही औलाद ने किया हो जन्म लेकर।

आज भी फुटपाथों पर नन्हे बच्चे और बेबस बुज़ुर्ग एक निवाले के लिए आसरे के लिए भटकते फिरते हैं। जिन्हें देख रूह भी रो देती है, फिर वो निर्मम हाथ क्यों नही कांपे इन्हें बेघर करने से पहले?

क्या इन बेचारे माँ बाप की गलती है जो इन्होंने निर्दयी औलाद पर भरोसा कर दर दर की ठोकरे ली, या वो मासूम कसूरवार है जो ऐसे निर्दयी माँ बाप के घर जन्मे जिन्होंने आँख खुलने से पहले कूड़े के ढेर में फेंक दिया। कसूर रिश्ते के दर्जे या हालतों का नही है बल्कि स्वार्थी और नीच मानसिकता का है, जिसे खुद के ऐशो आराम के अलावा किसी का दर्द नही दिखता।

अभी हाल ही में चर्चित बाबा राम रहीम  के बारे में जानकारी हासिल की तो पाया इन्होंने भी ऐसे लड़के-लड़कियों को गोद लिया है, जिन्हें भ्रूण अवस्था में ही कूड़े के ढेर में फेंक दिया था, और बाबा राम रहीम ने उन्हें गोद लिया और उन्हें एक नया जीवन दिया। उन्हें शिक्षा और सहारा उपलब्ध कराया। माना आज उनपर अनेक आरोप है पर जो अनाथ बच्चे गवाही दे रहे हैं कि इन्होंने हमे कचरे से उठाकर एक नया जीवन दिया,एक बेहतरीन भविष्य दिया है इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।

भारत जैसे देश में जहाँ माता-पिता को देवता सामान समझा जाता था, आज वहां बढ़ते वृद्धआश्रम हकीकत बयां करने के लिए काफी हैं कि हमारे समाज में किस नकारात्मक तरीके से बदलाव आ रहा है।महानगरों और नगरों में आधुनिकता से जीने की ललक में हम साल भर में एक बार कोई न कोई दिवस हम जरूर मनाते हैं, जैसे मदर्स डे, फादर्स डे और अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं । लेकिन इन दिवसों का उन बुजुर्गों के लिए क्या मायने हैं जिनके बच्चे ठीक से बात भी नहीं करते। यह कहना गलत न होगा कि वृद्ध आश्रम होना हमारे समाज के लिए कलंक हैं, किन्तु धीरे-धीरे यह समाज की सच्चाई बनता जा रहा हैं। जिन बच्चों को पालने के लिए माँ-बाप अपनी ज़िन्दगी लगा देते हैं, उनकी शिक्षा और सुविधा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं, उनको जीवन के अंतिम क्षण में अकेला छोड़ देना कितना बड़ा अपराध है, इस बात की कल्पना भी मुश्किल है। खासकर भारत जैसा देश, जहाँ लोग नाती-पोतों से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं और ऐसे में संपन्न लोगों को अपने अभिभावकों के बारे में सोचना चाहिए, उन्हें छोड़ नहीं देना चाहिए जब उन्हें अपने बच्चों की सबसे ज्यादा जरुरत होती है।

माना हम माता पिता के किये एहसानों का कभी कर्ज़ नही चुका सकते,पर उन्हें लाचार ओर बेघर करके एक और पाप करना कहाँ की इंसानियत है। हमारा फ़र्ज़ बनता है जैसे आराम की ज़िंदगी उन्होंने हमें दी,हमारी हर ज़िद्द को अपनी जरूरत मारके भी पूरा किया। सर्दियों में खुद चप्पल पहन हमे सिर पर टोपे से पैरो के जूते तक ढक दिया,कैसे भूल सकते हैं हम इनके रहमोकरम।

सड़क पर हाथ फैलाये गरीब को भीख देने में एहसान समझते हो और खुद के माता पिता को औरो से भीख मांगने,आश्रमो के दरवाजों पर धकेल दिया उसका क्या? क्या फायदा उस भगवान पूजन और तीर्थ यात्रा का जब माता पिता रूपक भगवान की कदर कचरे की तरह हैं, जिसे जहां मन आया फेंक दिया।

जरूरत है बदलने की, इन्सानियत जगाने की वरना हर माँ बाप पैदा होने से पहले औलाद को बेघर होने के डर से मार देगा। जरूरत हैं उन कातिल माँ बाप को बदलने की जो बच्चे को इस तरह अनाथ आश्रम, कूड़े के ढेर में फेंक देते हैं।

माता पिता ने सारा जीवन हमे सुख देने में निकाल दिया,तो हमारी व्यस्तता उनसे ज्यादा जरूरी कैसे हो सकती है?? हम अपने स्वार्थ के लिए क्यों अपने माँ बाप को बुढ़ापे में आराम की ज़िंदगी देने की बजाय उसे गालियाँ, बासी खाना,घर मे एक अंधेर कोना अन्यथा घर से ही धक्के दे देते हैं। सबका एक दिन बूढ़ापा आना है और यही समय, कुदरत भी बदले लेना जानती है अतः इतना जल्लाद बनने की बजाए एक जिम्मेवार औलाद बने और एक जिम्मेदार माँ बाप भी।

“माँ एक ऐसा बैंक है, जहाँ आप हर भावना और दुःख जमा कर सकते है और “पिता” एक ऐसे क्रेडिट कार्ड है, जिनके पास बैलेंस न होते हुआ भी, सपना पुरे करने की कोशिश करते है !!”

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