सजदे में सर और लब पे शिकवा,
ये तो आशिकी की तौहीन है यारो।
पूर्ण मुर्शिद एक ऐसा मानवीय अस्तित्व है जो मालिक परमात्मा की उस अखण्ड ज्योति को विश्व में अप्रत्यक्ष रूप में प्रकट करता है। अपने अप्रत्यक्ष रूप को प्रत्यक्ष रूप में परिवर्तित करके दिखाने के लिए अथवा अपने अटल रूप की झलक किस के समक्ष आकर कैसे दिखाता है,यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है। पूर्ण सतगुरु किस पर कैसी अवस्था में रहम बरसाता है अथवा दूसरे शब्दों में किसी साधारण व्यक्ति को अपना निराकार रूप दिखाने के लिए किस प्रकार चयन करता है। इसके विषय में सोचना इन्सान के लिए व्यर्थ है। क्योंकि जब कोई किसी दूसरे इन्सान को भली-भांति पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता, जिसकी हर बात में कोई रहस्य होता है। पूर्ण मुर्शिद जिसकी हर बात में लाखों रहस्य छिपे होते हैं, उसकी रमज को भला कोई कैसे जान सकता है? सतगरु अपनी इलाही एवम् करूणा युक्त दृष्टि से किसी को बेशक कोई जानकारी करवा दे यह एक अलग बात है। नहीं तो इसके विषय में यही कहा जा सकता है कि पूर्ण मुर्शिद और उसके शिष्य के मध्य में जो सम्बन्ध होता है वह संचित क माँ से अधिक मुर्शिद की इलाही रहमत का संकेत अधिक होता है। जिस इन्सान पर पूर्ण सतगुरु अपनी रहमत भरी नजर से क् पा करता है यह कोई साधारण बात नहीं है। क्योंकि इस स्वार्थ तथा मैं से युक्त युग में रह रहे किसी इन्सान के दिल में हकीकत भरे प्रेम का बीज अंकुरित हो जाना उसके अपने वश से बाहर की बात है। इसकी सरल और सीधी उदाहरण हमारे सम्मुख है कि अरबों की जनसंख्या युक्त दुनिया में केवल लाखों की संख्या में इन्सान हकीकत भरे प्रेम के अर्थ को जानते हैं। उन लाखों में कछ ही इन्सान इस अनोखे, नि:स्वार्थ और सच्चे प्रेम को अनुभव करते हैं।
देखो, यह कितनी अकृत्घनता होगी, यदि कोई पूर्ण सतगुरु का शिष्य होकर, सतगुरु की रहमतें को भूला कर उस जैसा अथवा उससे भी बढ़कर किसी अन्य को अपनी आत्मा का साथी बना लेता है। पर बलिहारे जाएं उस सतगुरु के जो अपने शिष्य की इतनी भारी गलती पर भी उसे नहीं छोडता, चाहे शिष्य कहीं भी भागता फिरे। शिष्य तथा उसकी आत्मा का अपने मुर्शिद के साथ एक अटूट सम्बन्ध होता है। ऐसा सम्बन्ध जिसके विषय में कोई उपयुक्त उदाहरण भी नहीं मिलता। सब प्रकार के क्यों, किन्तु एवम् सन्देह सदा के लिए समाप्त हो जानें के पश्चात जब किसी शिष्य ने महसूस कर लिया कि मेरा सतगुरु ही मेरे लिये सब कुछ है। इससे बड़ा मेरे लिए दुनिया में और कोई नहीं। न इन जैसा पहले कोई हुआ है और न कोई आगे से होगा। ऐसे विचार अंकुरित हो जाने के पश्चात शिष्य का यह पहला कर्तव्य हो जाता है कि वह जीवन के अन्तर्गत आने वाली विपतियों के भय से सतगुरु के समान किसी और क थे समझ लेने की गलती न करे। इतिहास में आए भाई मण्झ जैसे हकीकी इश्क के वफादार, बलिदान की मूर्ति शिष्य का उदाहरण हर समय अपनी आंखों के समक्ष रखे।